कुछ दिनों पहले यहीं चंदनापुरी के पास के गाँव मैं
गया था , एक
मेला देखने | इस मेले में भी सब कुछ वैसा ही था ; पारंपरिक
मेले जैसा हीं , मेले के बाहरी हिस्से में वाहनों का पड़ाव क्षेत्र
जहाँ ट्रेक्टर ,बैलगाडियां
और दो पहिया वाहन भरे पड़े थे , गाड़ियों पर या उसके आस-पास कुछ लोग विश्राम भी कर
रहें थे |मेला
का मध्य क्षेत्र में चलते-फिरते, रुकते लोगों का जबरदस्त भीड़ था |मेले
में मिठाइयों , बच्चो के खिलौनों और औरतोँ के साज-सज्जा के स्टाल्स
ही ज्यादा थे | औरतों (अधेड और व्यसक ) मंदिरों में पूजा के लिए कतारों
में खड़ी थे | नवविवाहितों और किशोरियों का हुजूम साज-सज्जा के
स्टाल्स पर व्यस्त था | बच्चों के साथ वाला परिवार खिलौनों और खाने में लगा
हुआ था और हमारे जैसे नवयुवक मेला के चारो तरफ फेरा लगा रहें थे |मेले
के दूसरे किनारे पे चरखा और बच्चो के मनोरंजन वाले बहुत सारे मशीने चल रही थीं | वहाँ
एक रेल-गाड़ी के प्रतिरूप वाला भी मशीन था , जो की सिटी बजाते हुए छूक-छूक कर के गोल-गोल घूम रही
थी और उस पर चढ़ने के लिए भी लाइन लगी थी | सबसे दिलचस्प और असरदार बात ये थी की बच्चें उस
प्रतिरूपी रेल-गाड़ी से उतरने के बाद भी
छूक-छूक रेलगाड़ी करते हुए आपस में खेल रहें थे |कुछ दिन पहले जब में जागृति यात्रा में गया था , जहाँ
की भारत के सर्वोत्तम विश्वविधालयों में अध्यनरत इस देश के भावी पीढ़ी ,देश के कोने-कोने
से आये हुए थे पर वो लोग भी इस छूक-छूक रेलगाड़ी का खेला खेलके गोल-गोल घूम कर नाचना
नहीं भूले थे |
आजकल के ट्रेने
या तो इलेक्ट्रिक या डीजल इंजनों पर चलती और इन ट्रेनों में बैठ कर
मैं अक्सर दूर-दूर तक की यात्रा करता हूँ पर आज तक न तो मैंने वो छूक-छूक की आवाज़ सुनी हैं और न हीं कर्ण प्रिय
वो सिटी , हाँ कान फाड़ने वाला हार्न अक्सर सुनाई पड़ता हैं
| आजकल तो हर जगह मेट्रो की मांग हैं ,कहीं कहीं तो ये चुनाव का मुद्दा भी बन रहा हैं ; दिल्ली में ये काफी सफल और लोकप्रिय भी हैं और बैठने में मज़ा भी आता हैं पर
मैंने इससे भी कभी छूक-छूक की आवाज़ नहीं
सुनी | अपने बचपन मैं, मैंने गया स्टेशन मैं १-२
बार इस छूक-छूक करती ट्रेन को देखा था और सुना था |उसके बाद से तो ये सिर्फ
दार्जिलिंग और शिमला जैसे पहाड़ी पर्यटक स्थलों का दिखावा बन कर रहा गया हैं | गौर करने लायक बात ये हैं की ऐसा क्या हैं इस छूक छूक रेल गाड़ी में , जो की अपना अस्तित्व खोने के बाद भी भारत के हर वर्ग और हर पीढ़ी में खुद को
जिन्दा रखे हुए हैं |
मैं एक ऐसे युवा
पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहा हूँ ,
जो की पश्चिमी सभ्यता में
खुद को डुबो देना चाहता हैं , ब्रान्ड के दिखावे ने हम सबको को अंधा बना दिया
हैं और डिस्को की तेज आवाजों ने बहरा |मेरा हमेशा से मानना रहा
हैं , नयी बातें और गुर सीखना जरुरी भी हैं और अच्छा भी पर अपनी
परम्परा और पुरानी अच्छी बातों को भुलाकर नहीं | कुछ दिनों पहले जब मैं
अपने जर्मन मित्र से इसी मुद्दे पर बात कर रहा था उसने एक बहुत अच्छी बात बताई की “ ये हम मनुष्यों का नैसर्गिक स्वाभाव हैं की हमारी आँखें हमेशा दूसरे चीजों की
तरफ देखती हैं और चकाचौंध उसे हमेशा आकर्षित करता हैं , अगर भारतीय इस चकाचौंध से आवेशित हों रहें हैं तो ये कोई अजूबा नहीं हैं ; पर ये चकाचौंध एक दिवास्वप्न की तरह ही हैं और हम पश्चिमी देश इस दिवास्वप्न
से निकलने के लिए भारत की तरफ देख रहें हैं |”
हम भारतीय अपने
परम्परा और संस्कृति पर खुद को बहुत गौरवान्वित महसूस करते हैं पर आज इस
परम्परा और संस्कृति का अस्तित्व ही दाव पर लगा हुआ हैं और इस अस्तित्व की लड़ाई
में इसका साख बचाने में वों लोग लगे हुए हैं जो सिर्फ पारंपरिक और सांस्कृतिक होने
का दिखावा कर रहें हैं | मैंने जिस कॉलेज से इंजिनियरिंग किया हैं , वो तो वैसे बंगाल के श्रेष्ठ कॉलेजों में से एक हैं पर यहाँ पर ग्रामीण इलाकों
से बहुत छात्र आते हैं ,जिन्होंने बचपन से पढाई के अलावा वो सब नहीं
किया जो की हमारे शहरी मित्रगण अक्सर करते हैं !! इनमें से कईयों को Valentine Day के बारे में पता नहीं होता हैं |जब उनके दोस्तों और seniors
को पता चलता हैं की
वो Valentine Day के बारे में नहीं
जानता हैं तो उसके साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है जैसा पुलिसवाले हिंदी फिल्मों में
राजनेताओं या डान के बेटो के हत्यारों के साथ करते हैं |ये बहुत ही शर्मिंदगी और
पिछडेपन का लक्षण माना जाता हैं |
अगर वो साल के बारह महीनो
या हमारे पर्व-त्योहारों का सांस्कृतिक या वैज्ञानिक मतलब जानते या बतलाना चाहता
हों तो सब लोग इसे बकबास या पुरानी मानसिकता या देहाती लक्षण बता कर उस बात को कोई
तबज्जो ही नहीं देंगे;इसका सबसे बड़ा कारण हैं की हम में से अधिकतर को
इसके बारे में कुछ मालूम ही नहीं हैं |आज हम लोग पर्व और त्योहार को
खाने-पीने और मस्ती के आयाम के रूप में
देख और अपना रहें हैं | चाहे सरस्वती पूजा हों या बर्थडे या गणतंत्र
दिवस पार्टी गाना और celebration
तो एक ही रहता हैं |हमारी
हालत धोबी के कुत्ते जैसे हो गया हैं- न तो हम लोग को अपने बारे में कुछ बता हैं और
ना हीं हम पश्चिम के बारे में कुछ जान पायें हैं| बस हम और हमारा ये समाज एक
दिखावा,एक ढोंग कर रहें हैं की ताकि लोग समझे की अब हम advance हों गये हैं पर वास्तव में हमें भी पता नहीं हैं की ये
दिखावा क्यों और किसके लिए ?हम लोग एक मृगतृष्णा के पीछे भाग रहें हैं पर कब तक ? दोष
सिर्फ नवयुवाओं का ही नहीं हैं , दोषी हमारे अभिभावक भी हैं जिन्होंने पढाई और
नौकरी के सामने नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों के महत्व को भुला ही दिया हैं और जिन
अभिभावकों ने इसके महत्व को समझा ,उन्होंने इसे अपने बच्चो पर थोपने का प्रयास
किया |सनसनी और खबरों के पीछे भागती मीडिया ने तो चकाचौंध और उदारता को एक नया
आयाम और परिभाषा दे दिया हैं |
छूक छूक करती रेलगाड़ी का जिन्दा रहना हम लोगों
को बहुत बड़ा सन्देश दे रहा हैं , अगर हमे अपने आप को सही में जिन्दा रखना हैं तो हमे
अपना आप को समझना पड़ेगा , अपने परम्परा और संस्कृति को सही और सरल भाषा में आगे
बढ़ाना पड़ेगा | कलाम साहब का vision २०२० का मतलब सिर्फ देश को Technology में आगे
ले जाना या GDP बढ़ाना नहीं हैं बल्कि इस vision में हमारा मानसिक, नैतिक ,सामाजिक
, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक विकास भी बहुत मजबूती से जुडा हुआ हैं |