Sunday, May 13, 2012

एक डूबकी


आज फिर ,
एक बार डूबकी लगा रहा हूँ ,
अशांत समुंद्र के सबसे शांत स्थल में जा रहा हूँ  |

माँ ,
इधर-उधर दौड-भाग कर,
आज फिर से बहुत कुछ बना रही हैं ,
आलू दम और खीर की खुश्बू से,
बेटे को बुला रही हैं |

गरमागरम खाने से थाली सजा रही हैं ,
बडे प्यार से मुझे बुला रही हैं ,
अपने आखों के सामने बैठाकर,
कौर कौर खिला रही हैं |

पुरे घर का हाल सुना रही हैं ,
भैया के बारे में बता रही हैं ,
दादा की मुश्किलें समझा रही हैं ,
पर अपने बारे में आज भी कुछ नहीं बतला रही हैं |

पतलेपन का ओह्लाना सुना ,
ज्यादा से ज्यादा खिला रही हैं |
दूसरों से सुना मेरा बड़ाई सुना रही हैं ,
कितने प्यार से पढाई का महत्व समझा रही हैं |

खाने के बाद हाथ धुला रही हैं ,
बिस्तरा पे बैठ , पीठ थपथापके
मुझे सुला रही हैं |
उसके बाद मेरे जुठे बर्तन मैं खाके ,
कपडे धुला रही हैं |

माँ ,
तू इतना काम ,
कैसे और क्यों करती जा रही हैं ?


कुछ दिनों पहले एक समाचार पत्र में , “माँ के नाम पैगाम” अंक के लिए मैंने अपना एक कविता प्रकाशित होने के लिए ई-मेल से भेजा था , कुछ देर बाद ही वहाँ से एक उत्तर आया , कृपया अपने माँ के साथ अपना एक फोटो भेजे | ये मेरे लिए तो अजीब परन्तु दुनिया के लिए काफी relevant और छोटा सा मांग था , परन्तु मेरे पास तो माँ का कोई कागज का फोटो हैं ही नहीं ,जो मैं इस दुनिया को दिखा सकू |दूसरी या तीसरी कक्षा में माँ ने भैया को बोल कर पहली बार मेरा फोटो खिंचवाया था वो भी अकेले का, आज तो स्थिति ऐसे हैं की वो करते हुए भी फोटो लिया जा रहा हैं| पर जहाँ तक माँ का सवाल हैं , हाँ वो तो  हमेशा मेरे दिल में हैं , मेरे शरीर का रोम रोम उस माँ का अहसानमंद हैं | मदर्स-डे पर अपनी माँ के संघर्ष और उनके साथ की कुछ बाते को मैंने शब्दों में उतारा हैं -

ममता के नाजुक पंखो से ,
बबंडर उडाया आपने |
गरीबी और बेचारी के काँटों से ,
गुलदस्ता बनाया आपने |
बबूल के छाव में भी,
आम का पौधा उगाया आपने |
जिंदगी के डगर पर हमें,
चलना सिखाया आपने |
हमें, हर मुश्किलों से ,
लड़ना सिखाया आपने |