गिरते, गिरते, चलना सिखा,
रोते रीते, हँसना |
ज़िन्दगी की सफ़र आसां नहीं हैं,
पर हर किसी को हैं, बसना |
आंगनों का सिकुड़ना जारी हैं,
लोगों का बिछुड़ना जारी हैं,
अल्फत की इस दुनिया हैं,
परिवार चलाना भारी हैं |
इस भीड़-भाड़ सुनहरी दुनिया में,
सब तरफ तन्हाई छा रही हैं |
वैश्विकता की मादकता में,
अपनों की भुलाई जा रही हैं |
भविष्य एक बार फिर,
भूत का दिशा ले रही हैं,
हमें हर बार खुद से जुड़ जाने का,
सन्देश दे रही हैं |
हमारा वर्तमान आज भविष्य और भूत के जाल में फँस गया हैं | हम आज वास्तविकता और दूरदर्शिता से परे हो, सिर्फ भावुकता और भौतिकता तक ही सिमित हो गए हैं |
मेरे इस कविता के प्रेरणा हैं- श्री सुशील बाजपाई, इनके बारे में जितना भी बोला या लिखा जाय कम ही होगा !! Engineering हो या Medical, social science हो या politics, कुछ भी इनसे परे नहीं हैं | हर मुश्किल का हल हैं इनके पास हैं और *हर हल मुश्किल !!