पहली बार,
ये थी एक ट्रेन की रात,
जब हमने किया,
उनसे ढेर सारी बात |
न शर्म था न कोई लिहाज,
हर बार होती थी बस उनसे ही बात,
खो रहे थे हम उनकी बातों में,
रो रहे थे उनके जस्वातों में |
उस चलती ट्रेन में,
खुद को भूलता जा रहा था,
सारी दुनिया को छोड़ता जा रहा था |
कौन जानता था की,
ये पहली मुलाकात एक अंगीठी जला जायेगी,
और हमेशा के लिए एक दर्द का अहसास करा जायेगी |
हाँ, इसके बाद,
महीनो तक न हुआ उनका दीदार,
पर ये सच हैं की,
मुझको हो गया था उनसे इकरार,
पर मजबूरी ऐसी,
की कभी न कर पाया इसका इजहार |
ये कविता समर्पित हैं, मेरे जैसे चिरकुटों को जो की SO CALLED इज्जत और सामाजिक बन्धनों से खुद को जकड रखे हैं, जिन्होंने अपने दिल के आरमा को एक टिस के रूप में अपने दिल में छिपा कर रखा हैं पर उस टिस को उनसे कभी भी व्यक्त नहीं कर पाये |