आजकल हमारा पड़ाव स्थान हैं , चंद्नापुरी में एक संस्था
का अघोषित अतिथि गृह
!! इस अतिथि गृह की सुविधाएँ ऐसी की कभी कभी बिना जेलर के कारावास गृह का आभास हों जाता हैं,खैर हम लोगों ने भी इसको कबाड़-गृह बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा हैं | पानी का कोई भरोसा नहीं (स्वच्छ पेय जल तो दूसरों के यहाँ से ही लाना पड़ता हैं); हद तो तब हों
जातीं हैं, जब कभी पानी आता हैं और मैं टंकी
भर कर सुकून का साँस लेता हूँ ;चलो अब अगले १५-२० दिन का काम हों गया , किन्तु
जब सुबह ७-८ बजे उठता हूँ तो टंकी मैं पानी ही नहीं मिलता, तब बगल वाली ताई एक बाल्टी पानी ले कर आती हैं और मराठी मैं बोलती की उनलोगों ने सुबह ५-६ बजे ही सारा पानी
निकाल लिया (आश्चर्य तो इस बात की होता हैं की ४ लोगों का इनका परिवार प्रतिदिन ११०-१२० लीटर पानी का
उपभोग कर जाते हैं वो भी पानी दूसरे जगह से
भर कर ?), बिजली बारह घंटे रहती हैं , शौचालय पिछवाड़े में हैं (इसका उपयोग भी बहुत सीमित ही हैं ,जब पानी रहता हैं
तब तो गाँव वालें ही इसका ज्यादा उपयोग करते हैं और बिना पानी के इसका उपयोग किया नहीं जा सकता ) , चोबीसों घंटे वाहनों का पीं-पों होते रहता हैं , आखिर हम राष्ट्रीय राजमार्ग ५० के बगल में जो रहते हैं | आजकल एक और नया आफत
आ गया हैं , पार्टियां चुनाव प्रचार के लिए पुरे
दिन लाउडस्पीकर लगा कर
घूम रहें हैं | इस चुनाव प्रचार से तो एक बात बिल्कुल
समझ में आती हैं की
चुनाव के बाद गाँववालों का भला हों या न हों परन्तु चुनाव प्रचार के १०-१५ दिन
बहुतो को रोजगार और पैसा दे रहा हैं , कुछ लोग तो पुरे
साल का माल एक चुनाव में ही कमा लेते हैं ,
वैसे भी हर साल कुछ न कुछ चीज का चुनाव तो होते ही रहता हैं , मुझे ताज्जुब होता हैं बीबीसी ने अभी तक हमे "चुनावों के देश " का तमगा क्यों नहीं दिया हैं ? में बीबीसी की बात इसलिए कर रहा था क्योंकि हमे अपने किसी भी चीज पर भरोसा नहीं हैं |वैसे भी हम दुनिया
के सबसे बडे गणतंत्र हैं , ये अलग बात हैं की हमारे यहाँ कोई
तंत्र नहीं हैं |
खैर अब में इस अतिथि गृह से बाहर निकल कर बरामदे की तरफ चलता हूँ , यहाँ से आप राष्ट्रीय राज-मार्ग पर नए-पुराने ,नाचते-गाते , हँसते-रोते, दो-पहिया ,चार-पहिया .दस-पहिया वाहनों का अवागमन का सीधा प्रसारण देख सकते हैं , एक तेज घुमाव भी हैं किन्तु शायद वो नॉएडा के एफ-१ रेस कोर्से जैसा तो नहीं ही होगा |बरामदे के सामने थोड़ी जगह हैं ,जिसमे बादाम के दो पेड़ लगे हुए हैं और उनपर बादाम का फल भी लगा हुआ हैं ,में प्रतिदिन ३०-४० बादाम जमीन पर पड़ा देखता हूँ (मैं दुविधा मैं हूँ की प्रतिदिन ३०-४० बादाम गिरते हैं या वहीँ बादाम प्रतिदिन दीखते हैं , पेड़ों से भी बादाम कुछ ज्यादा कम हुए नहीं दिखतें हैं)|वो बादाम न मैं खाता हूँ , न उस पेड़ से बंधी बकरी और न ही गाँव वालें , हाँ एक बार जब ईख काटने के लिए कुछ आदिवासी लोग आये थे तो उन्होंने पूरा मैदान साफ कर दिया था |एक इमली का भी पेड़ हैं , उस पर भी फल लगे हैं पर उसको भी न कोई खाता हैं और नाहिं बेचता हैं | हमारा जो ये अतिथि-गृह हैं वो गाँव के सबसे किनारे मैं हैं और रात को मैं यहाँ अमूमन अकेले हीं रहता हूँ कभी-कभी मेरा एक और साथी भी आ जाता हैं किन्तु हम लोग अक्सर टूर पर बाहर चले जाते हैं | गाँव के नवयुवक अक्सर इस बरामदे मैं आकार अपने महिला मित्रों से फोन पर गपशप किया करते हैं , मुझे भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता हैं , क्योंकि उस वक्त मैं भी अपने लैपटॉप पर इन्टरनेट की मायावी दुनिया मैं खोया रहता हूँ |वैसे भी ये लोग मेरे दोस्त जैसे ही हैं |हद तो तब हों जाता हैं जब कोई नवयुवक शराब पीकर आता हैं और उसी बरामदे में सो जाता हैं |अधिकांश युवक खैनी ,सिगरेट गुटखा और शराब का उपभोग करते हैं पर इसको वो अपने घरवालों से छिपा कर रखते हैं | ये बड़ों से डर हैं या परम्परायों का बंधन (जिस पर हम भारतीय बहुत गर्व महसूस करते हैं |) या खुद को मर्द या सयाना साबित करने का दिखावा ?
खैर अब में इस अतिथि गृह से बाहर निकल कर बरामदे की तरफ चलता हूँ , यहाँ से आप राष्ट्रीय राज-मार्ग पर नए-पुराने ,नाचते-गाते , हँसते-रोते, दो-पहिया ,चार-पहिया .दस-पहिया वाहनों का अवागमन का सीधा प्रसारण देख सकते हैं , एक तेज घुमाव भी हैं किन्तु शायद वो नॉएडा के एफ-१ रेस कोर्से जैसा तो नहीं ही होगा |बरामदे के सामने थोड़ी जगह हैं ,जिसमे बादाम के दो पेड़ लगे हुए हैं और उनपर बादाम का फल भी लगा हुआ हैं ,में प्रतिदिन ३०-४० बादाम जमीन पर पड़ा देखता हूँ (मैं दुविधा मैं हूँ की प्रतिदिन ३०-४० बादाम गिरते हैं या वहीँ बादाम प्रतिदिन दीखते हैं , पेड़ों से भी बादाम कुछ ज्यादा कम हुए नहीं दिखतें हैं)|वो बादाम न मैं खाता हूँ , न उस पेड़ से बंधी बकरी और न ही गाँव वालें , हाँ एक बार जब ईख काटने के लिए कुछ आदिवासी लोग आये थे तो उन्होंने पूरा मैदान साफ कर दिया था |एक इमली का भी पेड़ हैं , उस पर भी फल लगे हैं पर उसको भी न कोई खाता हैं और नाहिं बेचता हैं | हमारा जो ये अतिथि-गृह हैं वो गाँव के सबसे किनारे मैं हैं और रात को मैं यहाँ अमूमन अकेले हीं रहता हूँ कभी-कभी मेरा एक और साथी भी आ जाता हैं किन्तु हम लोग अक्सर टूर पर बाहर चले जाते हैं | गाँव के नवयुवक अक्सर इस बरामदे मैं आकार अपने महिला मित्रों से फोन पर गपशप किया करते हैं , मुझे भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता हैं , क्योंकि उस वक्त मैं भी अपने लैपटॉप पर इन्टरनेट की मायावी दुनिया मैं खोया रहता हूँ |वैसे भी ये लोग मेरे दोस्त जैसे ही हैं |हद तो तब हों जाता हैं जब कोई नवयुवक शराब पीकर आता हैं और उसी बरामदे में सो जाता हैं |अधिकांश युवक खैनी ,सिगरेट गुटखा और शराब का उपभोग करते हैं पर इसको वो अपने घरवालों से छिपा कर रखते हैं | ये बड़ों से डर हैं या परम्परायों का बंधन (जिस पर हम भारतीय बहुत गर्व महसूस करते हैं |) या खुद को मर्द या सयाना साबित करने का दिखावा ?
इस बरामदे से आगे निकलते हैं और राष्ट्रीय राज
मार्ग को पार करके , १-२ मिनट के अंतराल पे विराजमान पांडुरंगा
ढाबे (ये वही ढाबा हैं जहाँ पे खा-खा कर मैंने स्वाद को भुलाया हैं ) पर पहुचते हैं , ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रकाश स्तंभों और बल्बों से इस ढाबे को
सजाया गया हैं और सड़क के दोनों किनारों पर
बडे-बडे साइन-बोर्ड भी लगे हैं |ढाबे के बाहर एक छोटी से गुमटी हैं जिसमे मुख्य रूप से खैनी सिगरेट और
गुटखा का बिक्री होता हैं और वो भी M.R.P से
ज्यादा में | इस ढाबे का मालिक हैं हमारा भाऊ !! हमारे भाऊ लंबे-चौड़े , पैजामा-कुरता धारी ,श्याम वर्ण वाले , कांग्रेस
के कट्टर समर्थक , बहुत ही कर्कश और भारी स्वर के स्वामी और उखड़े मिजाज के रंगीलें बुड्ढे
(भारत सरकार की परिभाषा से ) हैं | to be continued ......
1 comment:
bhaauu..
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