Wednesday, February 8, 2012

माँ की याद

आज ये कैसा उफ़ान हैं !!
किसी की याद सता रही है !!
माँ , आज दरवाजे पे खड़ी,
मुझे फिर से बुला रही है |
इस अन्धेरी रात में ,
नींद भी कहाँ आ रही हैं !!

खाने की थाली लिए ,
वो दौडी दौडी आ रही हैं |
बेटा बेटा .... कह ,
कौर-कौर खिला रही है |
हर हिचकी पर सर सहला ,
पानी पीला रही है  |

अपने हाथों को गन्दा कर ,
मुझे साफ करा रही है |,
माँ आज फिर लोरियाँ सुना रही है |
धीमे-धीमे पीठ पे थपथपा,
निंदिया को बुला रही है |
माँ , आज तेरी बहुत याद आ रही है |

This poem is dedicated to my mother , who taught me how to move on the path of life. If i have achieved even iota in my life its credit goes to my Mother.   Simplicity was her garments , a true leader , bridge of our joint family .मैया (माँ को हम लोग मैया कह कर ही बुलाते थे )चाहती थी , उसके दोनों बेटे खूब पढ़े लिखे - एक बेटा सरकारी विधालय का शिक्षक बने और दूसरा रेलवे में T.T.E | पिताजी नौकरी में ही ज्यादा व्यस्त  रहते  थे , मैया   ही घर और बाहर सब देखती थी  |हमारे बडे भाई साहब (Topper of Magadh Commissionaire in Matriculation)  सरकारी विधालय के  शिक्षक भी बने और कुछ दिनों बाद वो पेशा छोड़ भी दिया और आजकल Electricity Board ,Patna में कार्यरत हैं | मैं भी इंजिनियर  बन गया हूँ  | मैया आज होती तो कितना खुश होती !!
                      आज से ७-८  साल पहले हमारे गया शहर के घर पर अतिथियों का मेला लगा रहता था | कोई गाँव से अपना इलाज करवाने आता था , तो कोई मेट्रिक का परीक्षा देने , बहुत लोग घूमने भी आते थे |हमारा घर गया स्टेशन और बस स्टैंड से नजदीक ही था , इसीलिए भी लोग चाय , नाश्ता.. के लिए आ जाते थे , घर में जो भी रुखा सुखा होता , माँ सब को खिला पीला कर ही जाने देती थी  | आज हमारा गया का वही घर वीरान सा हो गया हैं , पिताजी अकेले रहते हैं और सारा रूम किराया पे लगा हुआ हैं | हमारे घरवालें , रिश्तेदार और मोहल्लेंवालें प्यार से उसे डॉक्टर साहब बुलाते थे | हमारे रिश्तेदार और रिश्तेदारों के रिश्तेदारों, प्रसव के लिए अमूमन हमारे यहाँ ही आते  थी , इसका सिर्फ एक ही कारण था , मेरी माँ का व्यवहार और सहयोग | वो उनके लिए खाना भी बनाती , उनको अस्पताल भी लेकर जाती , प्रसव के पहले और प्रसव के बाद माँ को जरुरी हिदायतें भी देती और बच्चें तो मैया  को बहुत ही प्रिय थे (ये सब काम बिना पैसे लिए होता होता था , अक्सर ऐसा होता था की माँ को अपने ही पैसे लगाने पड़ते थे )| पुरे मोहल्लें से औरतें आतीं थी हमारे यहाँ अपने बच्चों को लेकर, कभी दंत निकलते समय चह दबबाने के लिए तो कभी बच्चों के  बिमारियों के निवारण के लिए सही सलाह लेने के लिए | यधपि की हम लोग एक संभ्रांत जाती से हैं और बिहार जैसे राज्य में ये जातिभेद कुछ ज्यादा ही  प्रचारित हैं ,पर माँ इन सब से परे बच्चों को देखते ही उनसे लिपट पडती थी |उस समय मुझे भी ये सब अच्छा नहीं लगता पर आज समझ में आता हैं की माँ ने क्या किया | आज हम लोग एक गरीब या दलित  के यहाँ खाना खाते हैं तो उसको हम लोग ढोल की तरह पिटते हैं , चंद लोगों की सेवा का दिखावा कर के लोग क्या-क्या और कैसे-कैसे पुरस्कार जीत रहें हैं | आज काल लोगों से हर चीज का certificate माँगा जाता हैं और लोग भी सर्टिफिकेट के लिए ही काम कर रहें हैं  | लेकिन ऐसे निस्वार्थ सेवा का क्या सर्टिफिकेट हों सकता हैं और कौन आदमी/औरत/संस्था  उसको दे सकता हैं ?
          मैया आज इस दुनिया में नहीं हैं किन्तु जब भी घर जाता हूँ और किसी रिश्तेदार या जन-पहचान वालों से मुलाकात होती हैं और जब वो बोलते हैं इस बच्चे को पहचान रहें हैं , आपके घर में इसका जन्म हुआ था , आपकी माँ ने कितना सेवा किया था  | छाती चौड़ा हों जाता हैं ,रोम-रोम पुलकित हों उठता  हैं  और आँखों में छा जातें हैं ,आंशु के कुछ बूंद ||

हमारे मित्र मयंक जैन ने इस कविता में औरत के माँ रूप पर हम युवाओं के लिए कुछ पंक्तियाँ लिखीं हैं , जिसे मैं यहाँ पर लिख रहा हूँ -
एक ही रूख से नतीजों पर पहुँचने वालों ज़िन्दगी मौत का उन्वां भी तो हो सकती है |
एक औरत जिसे दिल खोलकर चाहा जाए, सिर्फ़ महबूब, बहन, या बेटी ही नहीं माँ भी तो हो सकती है |


1 comment:

Intoxicatedmayank said...

एक ही रूख से नतीजों पर पहुँचने वालों ज़िन्दगी मौत का उन्वां भी तो हो सकती है
एक औरत जिसे दिल खोलकर चाहा जाए, सिर्फ़ महबूब, बहन, या बेटी ही नहीं माँ भी तो हो सकती है add