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Saturday, January 12, 2013

एक मुलाकात


पहली बार,
ये थी एक ट्रेन की रात,
जब हमने किया,
उनसे ढेर सारी बात |

न शर्म था न कोई लिहाज,
हर बार होती थी बस उनसे ही बात,  
खो रहे थे हम उनकी बातों में,
रो रहे थे उनके जस्वातों में |

उस चलती ट्रेन में,
खुद को भूलता जा रहा था,
सारी दुनिया को छोड़ता जा रहा था |

कौन जानता था की,
ये पहली मुलाकात एक अंगीठी जला जायेगी,
और हमेशा के लिए एक दर्द का अहसास करा जायेगी |

हाँ, इसके बाद,
महीनो तक न हुआ उनका दीदार,
पर ये सच हैं की,
मुझको हो गया था उनसे इकरार,
पर मजबूरी ऐसी,
की कभी न कर पाया इसका इजहार |


ये कविता समर्पित हैं, मेरे जैसे चिरकुटों को जो की SO CALLED इज्जत और सामाजिक बन्धनों से खुद को जकड रखे हैं, जिन्होंने अपने दिल के आरमा को एक टिस के रूप में अपने दिल में छिपा कर रखा हैं पर उस टिस को उनसे कभी भी व्यक्त नहीं कर पाये |

Sunday, February 19, 2012

रेल गाड़ी आज भी छूक छूक करके चलती है !!

कुछ दिनों पहले यहीं चंदनापुरी के पास के गाँव मैं गया था , एक मेला देखने | इस मेले में भी सब कुछ वैसा ही था ; पारंपरिक मेले जैसा हीं , मेले के बाहरी हिस्से में वाहनों का पड़ाव क्षेत्र जहाँ  ट्रेक्टर ,बैलगाडियां और दो पहिया वाहन भरे पड़े थे , गाड़ियों पर या उसके आस-पास कुछ लोग विश्राम भी कर रहें थे |मेला का मध्य क्षेत्र में चलते-फिरते, रुकते लोगों का जबरदस्त भीड़ था |मेले में मिठाइयों , बच्चो के खिलौनों और औरतोँ के साज-सज्जा के स्टाल्स ही ज्यादा थे | औरतों (अधेड और व्यसक ) मंदिरों में पूजा के लिए कतारों में खड़ी थे | नवविवाहितों और किशोरियों का हुजूम साज-सज्जा के स्टाल्स पर व्यस्त था | बच्चों के साथ वाला परिवार खिलौनों और खाने में लगा हुआ था और हमारे जैसे नवयुवक मेला के चारो तरफ फेरा लगा रहें थे |मेले के दूसरे किनारे पे चरखा और बच्चो के मनोरंजन वाले बहुत सारे मशीने चल रही थीं | वहाँ एक रेल-गाड़ी के प्रतिरूप वाला भी मशीन था , जो की सिटी बजाते हुए छूक-छूक कर के गोल-गोल घूम रही थी और उस पर चढ़ने के लिए भी लाइन लगी थी | सबसे दिलचस्प और असरदार बात ये थी की बच्चें उस प्रतिरूपी रेल-गाड़ी से उतरने  के बाद भी छूक-छूक रेलगाड़ी करते हुए आपस में खेल रहें थे |कुछ दिन पहले जब में जागृति यात्रा में गया था , जहाँ की भारत के सर्वोत्तम विश्वविधालयों में अध्यनरत इस देश के भावी पीढ़ी ,देश के कोने-कोने से आये हुए थे पर वो लोग भी इस छूक-छूक रेलगाड़ी का खेला खेलके गोल-गोल घूम कर नाचना नहीं भूले थे  | 
                   
आजकल के ट्रेने या तो इलेक्ट्रिक या डीजल इंजनों पर चलती और इन ट्रेनों में बैठ कर मैं अक्सर दूर-दूर तक की यात्रा करता हूँ पर आज तक न तो मैंने वो  छूक-छूक की आवाज़ सुनी हैं और न हीं कर्ण प्रिय वो सिटी , हाँ कान फाड़ने वाला हार्न अक्सर सुनाई पड़ता हैं | आजकल तो हर जगह मेट्रो की मांग हैं ,कहीं कहीं तो ये चुनाव का मुद्दा भी बन रहा हैं ; दिल्ली में ये काफी सफल और लोकप्रिय भी हैं और बैठने में मज़ा भी आता हैं पर मैंने इससे भी कभी  छूक-छूक की आवाज़ नहीं सुनी | अपने बचपन मैं, मैंने गया स्टेशन मैं १-२ बार इस छूक-छूक करती ट्रेन को देखा था और सुना था |उसके बाद से तो ये सिर्फ दार्जिलिंग और शिमला जैसे पहाड़ी पर्यटक स्थलों का दिखावा बन कर रहा गया हैं | गौर करने लायक बात ये हैं की ऐसा क्या हैं इस छूक छूक रेल गाड़ी में , जो की अपना अस्तित्व खोने के बाद भी भारत के हर वर्ग और हर पीढ़ी में खुद को जिन्दा रखे हुए हैं |
मैं एक ऐसे युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहा हूँ , जो की पश्चिमी सभ्यता में खुद को डुबो देना चाहता हैं , ब्रान्ड के दिखावे ने हम सबको को अंधा बना दिया हैं और डिस्को की तेज आवाजों ने बहरा |मेरा हमेशा से मानना रहा हैं , नयी बातें और गुर सीखना जरुरी भी हैं और अच्छा भी पर अपनी परम्परा और पुरानी अच्छी बातों को भुलाकर नहीं | कुछ दिनों पहले जब मैं अपने जर्मन मित्र से इसी मुद्दे पर बात कर रहा था उसने एक बहुत अच्छी बात बताई की ये हम मनुष्यों का नैसर्गिक स्वाभाव हैं की हमारी आँखें हमेशा दूसरे चीजों की तरफ देखती हैं और चकाचौंध उसे हमेशा आकर्षित करता हैं , अगर भारतीय इस चकाचौंध से आवेशित हों रहें हैं तो ये कोई अजूबा नहीं हैं ; पर ये चकाचौंध एक दिवास्वप्न की तरह ही हैं और हम पश्चिमी देश इस दिवास्वप्न से निकलने के लिए भारत की तरफ देख रहें हैं |”  
                          हम भारतीय  अपने  परम्परा और संस्कृति पर खुद को बहुत गौरवान्वित महसूस करते हैं पर आज इस परम्परा और संस्कृति का अस्तित्व ही दाव पर लगा हुआ हैं और इस अस्तित्व की लड़ाई में इसका साख बचाने में वों लोग लगे हुए हैं जो सिर्फ पारंपरिक और सांस्कृतिक होने का दिखावा कर रहें हैं | मैंने जिस कॉलेज से इंजिनियरिंग किया हैं , वो तो वैसे बंगाल के श्रेष्ठ कॉलेजों में से एक हैं पर यहाँ पर ग्रामीण इलाकों से बहुत छात्र आते हैं ,जिन्होंने बचपन से पढाई के अलावा वो सब नहीं किया जो की हमारे शहरी मित्रगण अक्सर करते हैं !! इनमें से कईयों को Valentine Day के बारे में पता नहीं होता हैं |जब उनके दोस्तों और seniors को पता चलता हैं की वो  Valentine Day के बारे में नहीं जानता हैं तो उसके साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है जैसा पुलिसवाले हिंदी फिल्मों में राजनेताओं या डान के बेटो के हत्यारों के  साथ करते हैं |ये बहुत ही शर्मिंदगी और पिछडेपन का लक्षण माना जाता हैं | अगर वो साल के बारह महीनो या हमारे पर्व-त्योहारों का सांस्कृतिक या वैज्ञानिक मतलब जानते या बतलाना चाहता हों तो सब लोग इसे बकबास या पुरानी मानसिकता या देहाती लक्षण बता कर उस बात को कोई तबज्जो ही नहीं देंगे;इसका सबसे बड़ा कारण हैं की हम में से अधिकतर को इसके बारे में कुछ मालूम ही नहीं हैं |आज हम लोग पर्व और त्योहार को खाने-पीने  और मस्ती के आयाम के रूप में देख और अपना रहें हैं | चाहे सरस्वती पूजा हों या बर्थडे या गणतंत्र दिवस पार्टी गाना और celebration तो एक ही रहता हैं |हमारी हालत धोबी के कुत्ते जैसे हो गया हैं- न तो हम लोग को अपने बारे में कुछ बता हैं और ना हीं हम पश्चिम के बारे में कुछ जान पायें हैं| बस हम और हमारा ये समाज एक दिखावा,एक ढोंग कर रहें हैं की ताकि लोग समझे की अब हम advance हों गये हैं पर वास्तव में हमें भी पता नहीं हैं की ये दिखावा क्यों और किसके लिए ?हम लोग एक मृगतृष्णा के पीछे भाग रहें हैं पर कब तक ? दोष सिर्फ नवयुवाओं का ही नहीं हैं , दोषी हमारे अभिभावक भी हैं जिन्होंने पढाई और नौकरी के सामने नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों के महत्व को भुला ही दिया हैं और जिन अभिभावकों ने इसके महत्व को समझा ,उन्होंने इसे अपने बच्चो पर थोपने का प्रयास किया |सनसनी और खबरों के पीछे भागती मीडिया ने तो चकाचौंध और उदारता को एक नया आयाम और परिभाषा दे दिया हैं |
        छूक छूक करती रेलगाड़ी का जिन्दा रहना हम लोगों को बहुत बड़ा सन्देश दे रहा हैं , अगर हमे अपने आप को सही में जिन्दा रखना हैं तो हमे अपना आप को समझना पड़ेगा , अपने परम्परा और संस्कृति को सही और सरल भाषा में आगे बढ़ाना पड़ेगा | कलाम साहब का vision २०२० का मतलब सिर्फ देश को Technology में आगे ले जाना या GDP बढ़ाना नहीं हैं बल्कि इस vision में हमारा मानसिक, नैतिक ,सामाजिक , सांस्कृतिक और वैज्ञानिक विकास भी बहुत मजबूती से जुडा हुआ हैं |

                                                                                                           
      

Wednesday, February 8, 2012

माँ की याद

आज ये कैसा उफ़ान हैं !!
किसी की याद सता रही है !!
माँ , आज दरवाजे पे खड़ी,
मुझे फिर से बुला रही है |
इस अन्धेरी रात में ,
नींद भी कहाँ आ रही हैं !!

खाने की थाली लिए ,
वो दौडी दौडी आ रही हैं |
बेटा बेटा .... कह ,
कौर-कौर खिला रही है |
हर हिचकी पर सर सहला ,
पानी पीला रही है  |

अपने हाथों को गन्दा कर ,
मुझे साफ करा रही है |,
माँ आज फिर लोरियाँ सुना रही है |
धीमे-धीमे पीठ पे थपथपा,
निंदिया को बुला रही है |
माँ , आज तेरी बहुत याद आ रही है |

This poem is dedicated to my mother , who taught me how to move on the path of life. If i have achieved even iota in my life its credit goes to my Mother.   Simplicity was her garments , a true leader , bridge of our joint family .मैया (माँ को हम लोग मैया कह कर ही बुलाते थे )चाहती थी , उसके दोनों बेटे खूब पढ़े लिखे - एक बेटा सरकारी विधालय का शिक्षक बने और दूसरा रेलवे में T.T.E | पिताजी नौकरी में ही ज्यादा व्यस्त  रहते  थे , मैया   ही घर और बाहर सब देखती थी  |हमारे बडे भाई साहब (Topper of Magadh Commissionaire in Matriculation)  सरकारी विधालय के  शिक्षक भी बने और कुछ दिनों बाद वो पेशा छोड़ भी दिया और आजकल Electricity Board ,Patna में कार्यरत हैं | मैं भी इंजिनियर  बन गया हूँ  | मैया आज होती तो कितना खुश होती !!
                      आज से ७-८  साल पहले हमारे गया शहर के घर पर अतिथियों का मेला लगा रहता था | कोई गाँव से अपना इलाज करवाने आता था , तो कोई मेट्रिक का परीक्षा देने , बहुत लोग घूमने भी आते थे |हमारा घर गया स्टेशन और बस स्टैंड से नजदीक ही था , इसीलिए भी लोग चाय , नाश्ता.. के लिए आ जाते थे , घर में जो भी रुखा सुखा होता , माँ सब को खिला पीला कर ही जाने देती थी  | आज हमारा गया का वही घर वीरान सा हो गया हैं , पिताजी अकेले रहते हैं और सारा रूम किराया पे लगा हुआ हैं | हमारे घरवालें , रिश्तेदार और मोहल्लेंवालें प्यार से उसे डॉक्टर साहब बुलाते थे | हमारे रिश्तेदार और रिश्तेदारों के रिश्तेदारों, प्रसव के लिए अमूमन हमारे यहाँ ही आते  थी , इसका सिर्फ एक ही कारण था , मेरी माँ का व्यवहार और सहयोग | वो उनके लिए खाना भी बनाती , उनको अस्पताल भी लेकर जाती , प्रसव के पहले और प्रसव के बाद माँ को जरुरी हिदायतें भी देती और बच्चें तो मैया  को बहुत ही प्रिय थे (ये सब काम बिना पैसे लिए होता होता था , अक्सर ऐसा होता था की माँ को अपने ही पैसे लगाने पड़ते थे )| पुरे मोहल्लें से औरतें आतीं थी हमारे यहाँ अपने बच्चों को लेकर, कभी दंत निकलते समय चह दबबाने के लिए तो कभी बच्चों के  बिमारियों के निवारण के लिए सही सलाह लेने के लिए | यधपि की हम लोग एक संभ्रांत जाती से हैं और बिहार जैसे राज्य में ये जातिभेद कुछ ज्यादा ही  प्रचारित हैं ,पर माँ इन सब से परे बच्चों को देखते ही उनसे लिपट पडती थी |उस समय मुझे भी ये सब अच्छा नहीं लगता पर आज समझ में आता हैं की माँ ने क्या किया | आज हम लोग एक गरीब या दलित  के यहाँ खाना खाते हैं तो उसको हम लोग ढोल की तरह पिटते हैं , चंद लोगों की सेवा का दिखावा कर के लोग क्या-क्या और कैसे-कैसे पुरस्कार जीत रहें हैं | आज काल लोगों से हर चीज का certificate माँगा जाता हैं और लोग भी सर्टिफिकेट के लिए ही काम कर रहें हैं  | लेकिन ऐसे निस्वार्थ सेवा का क्या सर्टिफिकेट हों सकता हैं और कौन आदमी/औरत/संस्था  उसको दे सकता हैं ?
          मैया आज इस दुनिया में नहीं हैं किन्तु जब भी घर जाता हूँ और किसी रिश्तेदार या जन-पहचान वालों से मुलाकात होती हैं और जब वो बोलते हैं इस बच्चे को पहचान रहें हैं , आपके घर में इसका जन्म हुआ था , आपकी माँ ने कितना सेवा किया था  | छाती चौड़ा हों जाता हैं ,रोम-रोम पुलकित हों उठता  हैं  और आँखों में छा जातें हैं ,आंशु के कुछ बूंद ||

हमारे मित्र मयंक जैन ने इस कविता में औरत के माँ रूप पर हम युवाओं के लिए कुछ पंक्तियाँ लिखीं हैं , जिसे मैं यहाँ पर लिख रहा हूँ -
एक ही रूख से नतीजों पर पहुँचने वालों ज़िन्दगी मौत का उन्वां भी तो हो सकती है |
एक औरत जिसे दिल खोलकर चाहा जाए, सिर्फ़ महबूब, बहन, या बेटी ही नहीं माँ भी तो हो सकती है |